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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

मकडियां


कुछ बातें...
कुछ यादें....
जो छिपी रहती हैं बादलों के पीछे..गहन अंधेरे में...
जिन्हें हम कभी ढूँढने का प्रयास भी नही करते
पर बादलों के बस में भी नही होता
उन्हें ज्यादा देर तक रोक पाना
जैसे ही हवा की रफ़्तार थोडी तेज होती है
बस उसी पल
बादलों का वो आवरण हटने लगता है...
और चमकने लगता है वो अँधेरा जिसे...
इतने जातां से छुपाया था
साफ़ नजर आने लगते हैं मकडियों के वो जले
जो इतने सालों के अज्ञान-ने बुने थे उस अंधेरे में
वहां फंसी हुई है वक्त की मकडियां और वक्त के ही बने हुए शिकार....
वो अनजाने में ही सही पर आकर फंस गए हैं उन जालों में
और अपना दम तोड़ चुके हैं
पर हम उनकी तरफ़ देखना नही चाहते....
कुछ ऐसा हो की
बादल का कोई टुकडा
फ़िर से इन जालों को ढँक दे और हम इन जालों के अस्तित्व का अहसास होने पर भी
कम से कम....
उनसे आँखें तो चुरा सकें......

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