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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

हाँ बिल्कुल यही


अँधेरी ठंडक फैली हुई है अंदर
कोने में छिपकर बैठा है उजाले का एक कतरा
सहमी आंखों से देख रहा है
अपने भीतर समाते अंधेरे को
उठकर जब वो चला खिड़की की तरफ़ बाहर झाँकने
कुछ देख ना सका
क्यूंकि बाहर भी सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं था
घबराकर अपने स्त्रोत हीन होने के डर से
उसने ऊपर नीचे दायें बाएँ सब तरफ़ खोजा
कि आख़िर उसके अस्तित्व कि वजह कहाँ है
कहाँ है प्रकाश का वो अप्रतिम स्त्रोत
जिससे काटकर वो यहाँ आया
पर सभी दरवाजे, सभी खिड़कियाँ
सिर्फ़ अंधेरे में ही खुलते थे
और शायद जो रास्ते उनसे निकलते थे वो भी
अंधेरों से ही भरे थे
पर कोई शक्ति थी जिससे वो धीरे धीरे आगे सरक रहा था
शायद वो समय था
जो उसे आगे खींच रहा था
पर अपनी पहचान से बेखबर रौशनी का वो कतरा
जैसे बैदियों में जकडा था
अनजान अपनी जड़ों से और अपने हुनर से
क्यूंकि अपने स्त्रोत को छोड़कर वो सीख नहीं पाया
की वो स्वयं ही अंधेरे को मिटा सकता है
जो वो बैठा है संकुचित सा अंधेरे में डरकर
अगर चाहे तो अपना विस्तार कर सकता है
अगर वो देख सके उस किरण को जिसके सहारे
उसने प्रवेश किया था इस अंधेरे कमरे में
तो शायद वो पा सकेगा अपने स्त्रोत को
अपने जन्मदाता को
जिसकी उसे सिर्फ़ एक धुंधली सी याद है
कभी पल रहा था वो एक स्नेहिल गोद में
पल रहा था मगर एक मकसद आहिस्ता आहिस्ता
उसकी चमकती आंखों में
शायद उसी लक्ष्य को पाने को
निकला था वो उस दुर्ग से
पर रास्ते बनाते बनाते वो जल्दी ही थकने लगा
भूल अपने शौर्य को वो किस्मत को रोने लगा
और जैसे ही बैठा था वो सुस्ताने जरा
उसकी किरण ने उसे छोड़ दिया
अब वो बैठा है वहीँ
मार्ग हीन उपाय विहीन
बस टिमटिमाती आंखों से कभी कभी
खोजने लगता है आसपास घिर आई दीवारों में
वो एक दर्रा बस एक दर्रा
जो उसे यहाँ ले आया था
शायद जिसके सहारे वो वापस चला जाए
पर तभी एक प्रश्न कोंधा
क्या ये सही होगा??
कुछ पल उसने सोचा फ़िर अचानक जैसे
कुछ निश्चय उभरा उसके मन में
हाँ बिल्कुल यही
बिल्कुल यही
वो वापस नही जाएगा
बल्कि ढूँढेगा उस अजस्त्र धारा को
जिससे बह रही हैं करोंडों रश्मियाँ
और यहाँ फैले अंधेरे का अंत करने को
वो लेकर आएगा अपने साथ उन्हें
और फ़िर कभी वो रौशनी का कतरा
ऐसे अंधेरों में फसकर नहीं घबराया
और ना ही सिमटा अपने आप में
वो हुआ और भी विस्तृत और भी अपार
और जैसे अंधेरे से उसका ये संग्राम वो फ़िर से जीत गया
हाँ बिल्कुल यही
बिल्कुल यही

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