वक़्त के आईने में अपनी शक्ल खोजता
वर्तमान खड़ा है
चेहरे के भाव पल पल बदलते हुए
वो अपने ही अक्स को पहचानने की
नाकाम कोशिश करता हुआ
अनमनाया सा
बस खड़ा हुआ
गुजरते पल हैरान
लगता जैसे वो किसी
गहरे
शुन्य में खो गया हो
गोते खा रहा हो जैसे
समय की अंतहीन लहरों के आगोश में
निर्वात में घुटती साँसों
और
बंद कमरे में फंसी आवाजों की तरह
वो जूझ रहा जैसे
अपनी ही आवाजों की प्रतिध्वनि से
कैलेंडर में बदलती तारीखों के साथ
वर्तमान अपने ही लिखे सफों को
मिटाने के प्रयास में
काले अक्षर काली स्याही में
डूबे उसके हाथ
कभी जिस स्याही से रचा ख़ुद को
अब उसी रचना पर स्याही फैलता बेबस
वर्तमान
आंखों के कोटर में भरे हुए
लाल डोरे
लाख छुपाने पर भी
सामने निकल आए
कितना मुश्किल हो गया वर्तमान के लिए
ख़ुद को ही देख पाना
और समझ पाना....
अब ख़ुद के अक्स में वो वर्तमान नही देख पाता
बल्कि
ख़ुद के अतीत को बार बार दोहराते हुए देखता हुआ
अब वो रह गया है
बस एक परछाई मात्र
जो बीत चुका है
जिसका वास्तव में कोई वजूद बाकी ही रहा
क्यूंकि वो तो कब का मर चुका है
चलता फिरता
बोलता सुनता
जो अब भी दिखायी दे जाता है
वो अब एक मृत परछाई ही है
जिसके मर जाने का किसी को
एहसास तक न हो सका.....
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें