रात उसे तेज़ बुखार चढ़ा
शरीर का हर हिस्सा चरमरा उठा
तब उसे घर याद आया
माँ की थपकियाँ याद आई
रात भर नींद से खाली
फिक्र भरी उसकी आँखें याद आई
उसने सभी खिड़कियाँ बंद कर ली
परदे भी उसने खींच लिए
की कहीं से कोई रौशनी न आ जाए
सारी बत्तियां बुझा कर
रात भर वो गरम साँसे उडेलता रहा अपने तकिये पर
रात गुजरी
पर सुबह का कहीं अता पता नजर न आया
कमरे का अन्धेरा चुप चाप उसे देखता रहा
सूरज ने कोशिश की खिड़की से झाँकने की
तो उसने मुंह फेर लिया
दिन चढ़ा
बुखार भी चढ़ा रहा
कुछ भूख चढी
पर नींद का खुमार भी चढ़ा रहा
वो याद करता रहा
गुजरे दिन, वाकये, शहर और लोग
एक वीरान पहाड़
बुखार में तपते कुछ लफ्ज़
गूंजते हैं घाटी में
कुछ पल
फिर सन्नाटा साँय साँय करता है
एक छाया पलटकर पीछे देखती है
दूसरी छाया को
लफ्ज़ गूंजते है फिर
और कुछ कहकहे सुनाई देते है
सन्नाटा फिर साँय साँय करता सुनाई पड़ता है
वो बुखार में तड़पता सन्नाटे की घुटन से बचता हुआ
अपने कानो पर हाथ रखता है
रात पसीने से तरबतर बदन
वो अचानक घबरा कर उठ बैठा
बुखार न था
पर खुमारी अब भी थी...
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