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रविवार, 17 मई 2015

रंग

अपनी नजर के रंग भरता हूँ दुनिया में,
मैंने ख़याल अलग-अलग रंगों की
शीशियों में भर रखे हैं,
मैं आसमान को नीला कहता हूँ
और पत्तों को हरा समझता हूँ
धरती को भूरा और सूरज को
उसके मिजाज के हिसाब से
कभी सुनहरा कभी लाल मानता हूँ
असमानता के कई रंग
मेरी नजर पर पर्दा बन चस्पां हैं
जिस दिन मेरी आँखों से
मेरे नजरिये के, ये रंगीन पर्दे हटेंगे
उस दिन शायद साफ़-साफ़ देख पाउँगा
ये दुनिया आखिर किस रंग की बनी है ! 

गुरुवार, 7 मई 2015

मैं गुजरता रहा

मैं गुजरता रहा
जिंदगी आगे बढ़ गयी
उसने रोकना चाहा होगा मुझे 
रुक कर एक लम्हा
उसकी आँखों में
झाँक सकने के वास्ते
मैं शायद समझ ना सका
सिर्फ हाथ बढ़ा सका मैं
एक दफा हवा में
इस तरह अलविदा कह कर
मैं गुजरता रहा । 

जिंदगी हिसाब मांगती रही
हर एक मोड़ पर
मैं खाली पड़ी जेबों में
भर कर सपने उन्हें
बही खाते की किताबों को
दिखाता रहा
उसने पूछे थे मुझसे
मेरे सपनों के रंग
उन्हें बाँट सकने के वास्ते
पर आसमान की स्याही
रंग बदलती रही 
जिंदगी कुछ समझ न सकी
और मैं गुजरता रहा । 

सोमवार, 4 मई 2015

सहूलियत के दायरे

मैंने एक सहूलियत की
दुनिया बसा ली है
अब मैं उसके दायरों के
अंदर ही रहता हूँ

इन दायरों से
बड़ी सहूलियत है
इससे जिंदगी के
सभी दांव पेंच
सुलझे से लगने लगे हैं
अब मुझे कोई
जोखिम लेने की जरुरत नहीं
क्यूँकि ये दायरे मुझे
सहूलियत के झूले
से उतरने ही नहीं देते

हालांकि शुरू में
दायरों में रहना
आसान न लगता था
वक़्त बेवक़्त एक आवाज
सुनायी देती थी
शायद मेरे अंतर्मन की आवाज
कचोटती सी तीखी
कान के परदे चीरती हुई
मन की गहराईयों को पार कर
पर फिर भी कहीं दूर से
आती हुई लगती वो आवाज
अब नहीं आती
बेवक़ूफ़ कहती थी
कि इतने आराम परस्त न बनो
सिर्फ एक जिंदगी मिली है
इससे अपने ढंग से जीने की
जुर्रत तो करो
ये क्या जमाने की तरह
सहूलियतें जमा कर रहे हो
कुछ जोखिम उठाओ
तब देखो जिंदगी कैसे
खिल कर उठेगी
हर दिन नया होगा
कैसे सुहाने सपने
आहा दिखाए उसने

पर मैंने सुनकर अनसुना कर दिया
नहीं ये मेरे लिए नहीं
ये आवाज मेरी नहीं
और न मेरे लिए है
ये मुझसे न होगा
कहीं आसमान के सपने
दिखाने वाली ये आवाज
छलावा तो नहीं

कुछ वक़्त गुजरा
दिन, महीने, साल गुजरे
और सहूलियत की चादर
मेरे तन अंतर्मन पर चढ़ती रही
अब कोई आवाज
मुझ तक नहीं पहुचती
बड़ा सुकून है इन दायरों में
मैं तो बड़ा खुश हूँ
अपनी इन पाबंदियों में
ये सहूलिएत के झूले
ये पाबंदियों की खिड़कियां
ये बंधनो के दरवाजे
मैंने सब ठीक से
ताले लगा बंद कर लिए हैं
मैं अपनी सहूलियतों के 
दायरों में हिफाजत से हूँ

क्या कहते हैं
मैं कायर हूँ
नहीं नहीं
आप बेवक़ूक़ हैं
जो बेकार जोखिम
उठाये घूमते है
आखिर दिखाना क्या चाहते हैं
मेरी तो समझ से पर है
आप किस आवाज की बात कर रहे हैं
अरे उसे गुजरे तो ज़माना हो गया
अपना इलाज क्यों नहीं करवाते
मुझे तो कोई आवाज नहीं
सुनायी देती
क्या बात करते हैं
मैं आपको इलाज बताता हूँ
आप भी वही करिये
जो मैंने किया
मैं आपको उस जगह का पता
लिख देता हूँ
जहां से मैंने अपनी
सहूलियतें खरीदी हैं
आप भी ज़रा
सहूलियतें खरीद लीजिये
सारी आवाजें आना बंद हो जाएँगी
सच कहता हूँ
ज़रा आजमा कर तो देखिये। 

रविवार, 3 मई 2015

किनारे

तलाश जिन्हें है इनकी
मयस्सर नहीं उनको किनारे
ये तो उनके इन्तेजार में हैं
जो भंवर में खुद को डालना जानते हैं।

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किनारे मजिलें नहीं बताते
वो सिर्फ एक याद बन चुके हैं
जिसे बीते हुए एक अरसा गुजर गया
पर लौट कर आती याद और छूटे हुए किनारे
कभी मंजिलें नहीं बताते।