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रविवार, 13 सितंबर 2015

सच कहूँ ?

सोचता हूँ,
थमता हूँ,
सोचता हूँ,
थमता हूँ,
सोच पर पहरे लगे हैं,
लिखता हूँ,
तो कलम रूकती है,
ठिठकती है,
सच लिखूं ?
सच पढोगे ?
सच कहूँ ?
सच सुनोगे ?
सच पूछूं ?
सच बोलोगे ?
सच तो ये है कि
हम सच सुनना भूल गए,
सच सफ़ेद है, या झूठ काला है
जिसने गोली मारी, वो तालिबान,
जिसने गोली खायी, वो मलाला,
पर गोली मारने वाली सरकारों,
और सरकारी मुलाजिमों को फेहरिस्त में कौन लेगा ?
गोली खाने वाले मासूमों की गिनती
शुरू कब  होगी ?
गोली मारने वाले कब पैदा हुए,
उनको किसने पाला पोसा,
इसका हिसाब होगा ?
मुआवजे से जिंदगी का हिसाब,
किसने  और कैसे किया ?
और मुआवजा बांटने वाले कौन थे ?
सच के सिपहसालार थे,
या किसी के कंधे पर रख कर,
बंदूके गोलियां चलाने वाले थे ?
सच बोलने वाले कौन थे ?
उन्हें देखा कभी ?
उन्हें कन्धों पर उठाया था, जब वो ज़िंदा थे ?
या ये दिन उनके मरने  के बाद ही हमने
उनके जनाज़े पर देखा था ?
सच सफ़ेद, झूठ काला है
झूठ कहूँ, तो झूठ तुम सुनोगे,
झूठ लिखूं, तो झूठ तुम पढ़ोगे,
झूठ ही बोलूं, तुम झूठ ही समझोगे ! 

रविवार, 17 मई 2015

रंग

अपनी नजर के रंग भरता हूँ दुनिया में,
मैंने ख़याल अलग-अलग रंगों की
शीशियों में भर रखे हैं,
मैं आसमान को नीला कहता हूँ
और पत्तों को हरा समझता हूँ
धरती को भूरा और सूरज को
उसके मिजाज के हिसाब से
कभी सुनहरा कभी लाल मानता हूँ
असमानता के कई रंग
मेरी नजर पर पर्दा बन चस्पां हैं
जिस दिन मेरी आँखों से
मेरे नजरिये के, ये रंगीन पर्दे हटेंगे
उस दिन शायद साफ़-साफ़ देख पाउँगा
ये दुनिया आखिर किस रंग की बनी है ! 

गुरुवार, 7 मई 2015

मैं गुजरता रहा

मैं गुजरता रहा
जिंदगी आगे बढ़ गयी
उसने रोकना चाहा होगा मुझे 
रुक कर एक लम्हा
उसकी आँखों में
झाँक सकने के वास्ते
मैं शायद समझ ना सका
सिर्फ हाथ बढ़ा सका मैं
एक दफा हवा में
इस तरह अलविदा कह कर
मैं गुजरता रहा । 

जिंदगी हिसाब मांगती रही
हर एक मोड़ पर
मैं खाली पड़ी जेबों में
भर कर सपने उन्हें
बही खाते की किताबों को
दिखाता रहा
उसने पूछे थे मुझसे
मेरे सपनों के रंग
उन्हें बाँट सकने के वास्ते
पर आसमान की स्याही
रंग बदलती रही 
जिंदगी कुछ समझ न सकी
और मैं गुजरता रहा । 

सोमवार, 4 मई 2015

सहूलियत के दायरे

मैंने एक सहूलियत की
दुनिया बसा ली है
अब मैं उसके दायरों के
अंदर ही रहता हूँ

इन दायरों से
बड़ी सहूलियत है
इससे जिंदगी के
सभी दांव पेंच
सुलझे से लगने लगे हैं
अब मुझे कोई
जोखिम लेने की जरुरत नहीं
क्यूँकि ये दायरे मुझे
सहूलियत के झूले
से उतरने ही नहीं देते

हालांकि शुरू में
दायरों में रहना
आसान न लगता था
वक़्त बेवक़्त एक आवाज
सुनायी देती थी
शायद मेरे अंतर्मन की आवाज
कचोटती सी तीखी
कान के परदे चीरती हुई
मन की गहराईयों को पार कर
पर फिर भी कहीं दूर से
आती हुई लगती वो आवाज
अब नहीं आती
बेवक़ूफ़ कहती थी
कि इतने आराम परस्त न बनो
सिर्फ एक जिंदगी मिली है
इससे अपने ढंग से जीने की
जुर्रत तो करो
ये क्या जमाने की तरह
सहूलियतें जमा कर रहे हो
कुछ जोखिम उठाओ
तब देखो जिंदगी कैसे
खिल कर उठेगी
हर दिन नया होगा
कैसे सुहाने सपने
आहा दिखाए उसने

पर मैंने सुनकर अनसुना कर दिया
नहीं ये मेरे लिए नहीं
ये आवाज मेरी नहीं
और न मेरे लिए है
ये मुझसे न होगा
कहीं आसमान के सपने
दिखाने वाली ये आवाज
छलावा तो नहीं

कुछ वक़्त गुजरा
दिन, महीने, साल गुजरे
और सहूलियत की चादर
मेरे तन अंतर्मन पर चढ़ती रही
अब कोई आवाज
मुझ तक नहीं पहुचती
बड़ा सुकून है इन दायरों में
मैं तो बड़ा खुश हूँ
अपनी इन पाबंदियों में
ये सहूलिएत के झूले
ये पाबंदियों की खिड़कियां
ये बंधनो के दरवाजे
मैंने सब ठीक से
ताले लगा बंद कर लिए हैं
मैं अपनी सहूलियतों के 
दायरों में हिफाजत से हूँ

क्या कहते हैं
मैं कायर हूँ
नहीं नहीं
आप बेवक़ूक़ हैं
जो बेकार जोखिम
उठाये घूमते है
आखिर दिखाना क्या चाहते हैं
मेरी तो समझ से पर है
आप किस आवाज की बात कर रहे हैं
अरे उसे गुजरे तो ज़माना हो गया
अपना इलाज क्यों नहीं करवाते
मुझे तो कोई आवाज नहीं
सुनायी देती
क्या बात करते हैं
मैं आपको इलाज बताता हूँ
आप भी वही करिये
जो मैंने किया
मैं आपको उस जगह का पता
लिख देता हूँ
जहां से मैंने अपनी
सहूलियतें खरीदी हैं
आप भी ज़रा
सहूलियतें खरीद लीजिये
सारी आवाजें आना बंद हो जाएँगी
सच कहता हूँ
ज़रा आजमा कर तो देखिये। 

रविवार, 3 मई 2015

किनारे

तलाश जिन्हें है इनकी
मयस्सर नहीं उनको किनारे
ये तो उनके इन्तेजार में हैं
जो भंवर में खुद को डालना जानते हैं।

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किनारे मजिलें नहीं बताते
वो सिर्फ एक याद बन चुके हैं
जिसे बीते हुए एक अरसा गुजर गया
पर लौट कर आती याद और छूटे हुए किनारे
कभी मंजिलें नहीं बताते।  

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

जिंदगी का निशान

डूब जाते गर गहरे पानी में,
तो बात कुछ और थी,
हम तो उछले किनारों
पर फिसल कर घुट गए,
सांस थमने को सिर्फ,
एक बहाने की जरूरत थी,
और इस छिछले पानी में तो,
अब मछलियाँ भी नहीं तैरा करती,
यहाँ जिंदगी का कोई निशान,
न मेरे आने से पहले था,
न मेरे होने से कुछ होगा।   

ताले

चाभियाँ लेकर चलता हूँ,
जिधर भी जाता हूँ,
मेरे लफ्ज़ पर ताले,
लगाने की कोशिशों को,
नाउम्मीदी ही हासिल होगी।  


गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

तन्हाई का बसेरा

तन्हाई थोड़ा थोड़ा कर
आती रही
और बस गयी
एक बंद कमरे में
धुंध की तरह
अब हम हर
आने वाले रोशनी
के कतरे को
इस धुंध की परछाईयों
में खोजते हैं
इक चमक जब कभी
दिख जाती है
पोरों से सरकती हुई
और बेनकाब कर जाती है
मेरी तन्हाई का
टुकड़ा टुकड़ा
माहौल में उलझा हुआ
उड़ता हुआ पर रुका हुआ
बसा हुआ तंज हवा में
और जब सरक आता है
अँधेरा घुप्प
बिना किसी आहट
या चेतावनी के
सांस लेती है
तन्हाई छुप कर
अंधेरों की सलवटों में
और घूरती है
मेरी बंद आँखों में

मेरी बंद आँखों में
उसे अपने जीने की
वजह दिखती होगी
शायद
मेरे सिले होठों पर
उसे अपनी जीत की
गूंज सुनाई देती होगी ।


पहला पन्ना

जिंदगी की किताब का पहला पन्ना
हमने खाली छोड़ रखा है
उसे भरने की आरजू तो हुई
पर मेरा नाम
उस काबिल न हो सका 

अफवाहों का हुनर

अफवाहों में होता है, फैलने का हुनर
हम समेट लें अपना वजूद भी तो क्या
वो इश्तेहार बनकर, अखबारों के पहले
पन्नों पर चस्पा हैं. 

खामोश सोच

तन्हा रहते हुए 
एक अरसा गुजर गया 
इतना लंबा गुजरा 
कि मेरी सोच को तन्हा कर गया 

खामोश रहते हुए 
कितना वक़्त गुजरा 
कितने दिन, कितनी रातें 
बिना एक लफ्ज़ बोले 
या सुने हुए 
क्या लगता है 
क्या ये ख़ामोशी 
सोच को खामोश कर पायेगी 

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

खालीपन का शहर

धीरे धीरे खालीपन भरता रहा 
और देखते ही देखते 
खालीपन का एक पूरा शहर बन 
खड़ा हो गया 
शहर या जंगल 
जैसे जंगल के अनछुए रास्तों पर 
पगडंडियां नहीं होती 
वैसे ही इस खालीपन के शहर को 
मापने के वास्ते 
पगडंडियां अभी नहीं बनी 
और न ही कभी बनेंगी 
क्यूंकि खाली दिल 
कोई असर नहीं छोड़ते
वो हवा की तरह गुजर जाते हैं 
जो दिखती नहीं और न ही उसमे कोई महक होती है 
उसके होने का अहसास 
सिर्फ वो कर सकते हैं 
जो उसके रास्ते में 
खड़े हो जाते हैं 
पर शहर अभी खाली है 
और यहाँ की हवा 
बेरोक-टोक सांय सांय 
कर रही है 
कोई सुनने वाला भी नहीं 
कोई देखने वाला भी नहीं 
न कोई रास्ता 
न कोई मंजिल 
खालीपन का ये शहर 
अपनी बाहें पसारे 
खाली आसमान की ओर 
उम्मीद भरी निगाहों से देखता है 
न जाने कहाँ गया वो चाँद 
और कहाँ ग़ुम हो गए सितारे
शहरों की इमारतों से हमने 
पेड़ों के झुरमट को बदल लिया 
अब कहाँ का चाँद 
और कहाँ के सितारे  | 

तुम बढ़ रहे हो हर पल

देखो तुम्हे,
तुम बढ़ रहे हो आगे हर पल
कल जो तुम थे, वो आज नहीं हो
न ही कल फिर होगे कभी आज से
क्योंकि तुम बढ़ रहे हो हर पल

कहते हैं,
तजुर्बे से जिंदगी जी जाती है
पर तजुर्बा आते आते
न जाने कितना वक़्त लग जाएगा
तब तक हर बार गिर कर
एक बार और तुम उठोगे
तो इस बार कदम
मजबूत हो फिर आगे रखोगे
और देखो जरा
फिर तुम बढ़ रहे होगे हर पल

देखो तुम्हे,
तुम बढ़ रहे हो आगे हर पल
तुमने कुछ नया सीखा है
अब तुम फिर कभी नहीं रहोगे
जो तुम कल हुआ करते थे
क्योंकि तुम बढ़ रहे हो हर पल

धरती फिर से जी उठी

बादल जो फरार थे
धरती के जीवन प्राण
खुद में कैद किये
आज उनका हिज़ाब गिर गया
और धरती फिर से जी उठी

बादल

धरती को हमने काटकर उसका बटवारा कर लिए
नदियों को हमने रोक लिया और मार लिया
जंगल हमने काट दिए और इतिहास में दफना दिए
सागर पर बारह मील बाद किसी का हक नहीं पर
हम उसकी गहराईयों पर आधिपत्य जमा बैठे हैं
आसमान सूरज चाँद तारो की ज़मीन है पर
जिस दिन आसमान हाथ आया बंट जाएगा
बादल अभी मैदान छोड़ भागते दिखते हैं पर
वो फिर भी हमारे न होंगे
शायद वो एक दिन हमसे
धरा, धारा, अम्बर, अरण्य, और अर्णव का प्रतिशोध लेंगे

एक खिड़की

वाजिब सवाल शून्य के शोर में डूब चुके हैं
उनके चीख बन वापिस आ सकने के वास्ते
एक खिड़की हमने खुली छोड़ रखी है ||

जिंदगी मिली!

जब पूछा गया
सजा क्या मिली
जवाब आया
जिंदगी मिली,
जीने के लिए!!

जवाब देने वाले की
आँखों में व्यंग्य था
तैयारी तो दर-असल,
मौत की थी!!

संघर्ष को कैद करने
की कवायद
जारी तो थी पर
मुकम्मल न थी|