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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

शोर


आजकल मैं सिर्फ शोर सुनती हूँ
तेज तेज चिल्लाता हुआ
कानो में गूंजता हुआ एक अविरल शोर
क्यूंकि ख़ामोशी को सुन सकने के लिए जिस साहस की आवश्यकता होती है
मैंने उसे कहीं खो दिया है
इसलिए मैं आसपास रहती जिंदगी का संगीत नहीं सुनती
सिर्फ शोर सुनती हूँ
शोर...जिसमें और कुछ सुना ही जा सके...
विचारों के पनप सकने के लिए जहाँ कोई स्थान रिक्त ही रह सके
आस पास कोनों में छिपे हुए निर्वात को भी इस शोर से भरते हुए मैं...
अब आँखें जमीन में गडाए हुए चलती हूँ
और सिर्फ शोर सुनती हूँ
सुबह की शान्ति और पवित्र निर्जनता से बचने को
मैं देर तक सोती हूँ
वक़्त के जल्दी जल्दी गुजर जाने का इंतज़ार करते हुए
आँखें बंद ही रखती हूँ
और कहीं ये वक़्त फिर मुझे कुछ याद दिला दे...
और अपनी गुफा में पीछे खीचने लगे...
तो इसलिए मैं शोर सुनती हूँ
देखती नहीं किसी की आँखों में
और किसी से बात करती हूँ
और कभी कभी तो खुद को खुद से बात करने से रोकने को...
मैं शोर सुनती हूँ
और कोशिश करती हूँ चुप रहने की
इस कोलाहल के साथ...
और बिखेर देती हूँ उसे अपने आस पास सामान की तरह
किताबें बिखरी रहती हैं सर के पास
और फैली रहती हैं पैरों तक
कभी कुछ पन्ने पलट देती हूँ पर....
पढ़ नहीं पाती
क्यूंकि कुछ ही पलों में शब्द हवा में तैरने लगते हैं
उन्हें पकड़ने के प्रयास में मैं भागती हूँ
उनके पीछे
पर कुछ ही शब्दों को समेट पाती हूं
मेरे वाक्य अधूरे ही रह जाते हैं
और किरदारों के अर्थ ही खो जाते हैं
अधूरी कहानी और अधूरे किरदार
सब अचानक से धुंधला सा जाता है
किताब बंद कर उसके खाली सफों को भरने को...
मैं फिर शोर सुनती हूँ
आगे चलती हूँ पर डोर से बंधे पेंडुलम की तरह
फिर लौटने लगती हूँ पीछे की तरफ...
इस जद्दोजेहद से तंग आकर
अपनी धुरी पर रुक जाती हूँ
यहाँ कोई संघर्ष नहीं होता सिवाय इसके की
यहाँ मेरे सपनों का दम घुटने लगता
हत्या करने की इस ग्लानी से बचने को
मैं अब शोर सुनती हूं
सपनो के टूट जाने के विचार इस शोर में खुद ही टूट जाते हैं
चेतन अवचेतन एक दूसरे में घुलने लगते हैं
मैं अकिंचित उठ कर बैठ जाती हूँ
और फिर मैं शोर सुनती हूँ.....

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