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शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

सफर


रुकी हैं मंजिलें ,
चल रहा है सफर ,
जिंदगी के जूनून में खो जाने को,
बेताब हो रही है सहर
बैठा है आंखों की गहराई में,
छिपकर अँधेरा,
परदों से निकलकर साँस लेने को,
तड़प रहा है सच का कहर।
दबी है कफ़न के भीतर,
करवटें लेती आरजू ,
जिलाने वास्ते उसको ,
हटाकर बेहया मिट्टी पल रही है उछ्रन्खल लहर।
गुज़र रहा है रास्ता ,
वीराने जंगलों से निकलकर ,
सूखे दरख्तों के तले बेबस हो ,
छाया खोज रही है दोपहर
गिर रहे हैं गश खाकर,
परिंदों के हौसले ,
अनजान थे जो फलसफों से,
कि मीठे झरने आजकल उगल रहे हैं ज़हर।
पढ़े हैं किताबों में,
सच की मिल्कियत के अनगिनत किस्से,
नादान थे हम भी जो खोज में उनकी,
बदल रहे हैं तबसे शहर दर शहर....

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