दिन की कमीज में पैबंद लगे
रात की चादर कुछ छोटी पड़ गयी
उसने नजर फेर ली
मैंने न देखने का फैसला किया
उसने ज़ुबान पर ताले लगा लिए
मैंने आवाज को दबा दिया
ज़िन्दगी सड़कों पर खडी
नंगी धूप में
बचपन बेचती रही|
मौसम जब सख्त हुआ और हवा के रुख बदले
जलती धरती पैरो की नरमी खा गयी
उसने हाथ झटक लिए
मैंने कदमों की चाल बढा दी
उसने दरवाजे बंद कर लिए
मैंने रास्ता बदल लिया
ज़िन्दगी सडकों पर खड़ी
नंगी धूप में
बचपन बेचती रही|
चौराहे पर ज़िन्दगी बदस्तूर चलती रही
एक इमारत महीनों बाद बनकर खड़ी हो गयी
उसने हक की बात न की
मैंने लफ़्ज़ों को समेट लिया
उसने किस्मत को कोस दिया
मैंने हाथों को बढ़ने से रोक लिया
ज़िन्दगी सडकों पर खड़ी
नंगी धूप में
बचपन बेचती रही|
शुक्रिया :)
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