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शुक्रवार, 14 जून 2013

पहली रात है शहर में

पहली रात है
शहर में
आज नींद नहीं आएगी
फुटपाथ पर
सिरहाने बिजली का
खम्भा है
जिससे जगमगाती है
पूरी सड़क
रात भर
भरती है वो
सोडियम बल्ब
की रोशनी
मेरी आँखों में
नींद की जगह

मैं खींच लेता हूँ
आँखों पर
एक धुली
सफ़ेद चादर
जिसे मेरी पत्नी ने
अपने हाथों से धोकर
रखा था
लोहे के बक्से में
और निकाला था बाहर
सफ़र के लिए

इस चादर से
घर की खुशबू आती है
कितनी रातें गुजरेंगी यहाँ
और कब तक इस
खुशबू को
समेट पाउँगा

पहली रात है
शहर में
आज नींद नहीं आएगी
फुटपाथ पर|

सड़क की दूसरी ओर
जहा मैं लेटा हूँ
एक सरकारी अस्पताल है
वहाँ देखता हूँ
तो इस घडी भी
खासी गहमागहमी
सी लगती है

अन्दर अस्पताल में
किसी कमरे के
एक कोने में
गद्दा बिछाया गया है
जिस पर मेरी पत्नी
लेटी हुयी होगी
अक्सर उसे अनजान जगह पर
नींद नहीं आती
पर आज वो खामोश
वहाँ सोयी पडी है

उसके हाथों की नीली नसें
वक़्त बेवक्त
फडफडाती हैं बैचैन
न जाने कब तक
तडपेंगी ये नसें
और कब तक
खून दौडेगा उनमे
दवाओं में घुलकर

ना जाने कब सब
खामोश हो जाएगा
डॉक्टर कहता है
कुछ भी कहना मुश्किल है

पहली रात है
अभी तो
शहर में
आज नींद
पास भी नहीं फटकेगी|


4 टिप्‍पणियां:

  1. पहली रात शहर में .......सुंदर रचना अंकिता जी ।

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  2. शुक्रिया त्रिपाठीजी, हौसला अफजाई के लिए.

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  3. संवेदना मन में भरी हो तो ऐसी ही मर्मस्पर्शी रचना देखने को मिलती हैं ...
    हार्दिक शुभकामनायें!

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  4. बहुत-बहुत शुक्रिया कविताजी

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