पहली रात है
शहर में
आज नींद नहीं आएगी
फुटपाथ पर
सिरहाने बिजली का
खम्भा है
जिससे जगमगाती है
पूरी सड़क
रात भर
भरती है वो
सोडियम बल्ब
की रोशनी
मेरी आँखों में
नींद की जगह
मैं खींच लेता हूँ
आँखों पर
एक धुली
सफ़ेद चादर
जिसे मेरी पत्नी ने
अपने हाथों से धोकर
रखा था
लोहे के बक्से में
और निकाला था बाहर
सफ़र के लिए
इस चादर से
घर की खुशबू आती है
कितनी रातें गुजरेंगी यहाँ
और कब तक इस
खुशबू को
समेट पाउँगा
पहली रात है
शहर में
आज नींद नहीं आएगी
फुटपाथ पर|
सड़क की दूसरी ओर
जहा मैं लेटा हूँ
एक सरकारी अस्पताल है
वहाँ देखता हूँ
तो इस घडी भी
खासी गहमागहमी
सी लगती है
अन्दर अस्पताल में
किसी कमरे के
एक कोने में
गद्दा बिछाया गया है
जिस पर मेरी पत्नी
लेटी हुयी होगी
अक्सर उसे अनजान जगह पर
नींद नहीं आती
पर आज वो खामोश
वहाँ सोयी पडी है
उसके हाथों की नीली नसें
वक़्त बेवक्त
फडफडाती हैं बैचैन
न जाने कब तक
तडपेंगी ये नसें
और कब तक
खून दौडेगा उनमे
दवाओं में घुलकर
ना जाने कब सब
खामोश हो जाएगा
डॉक्टर कहता है
कुछ भी कहना मुश्किल है
पहली रात है
अभी तो
शहर में
आज नींद
पास भी नहीं फटकेगी|
पहली रात शहर में .......सुंदर रचना अंकिता जी ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया त्रिपाठीजी, हौसला अफजाई के लिए.
जवाब देंहटाएंसंवेदना मन में भरी हो तो ऐसी ही मर्मस्पर्शी रचना देखने को मिलती हैं ...
जवाब देंहटाएंहार्दिक शुभकामनायें!
बहुत-बहुत शुक्रिया कविताजी
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