एक अकेला
एक लकीर से उस पार
पड़ा है निर्जीव निहत्था
चेहरे पर उसके भाव
चीत्कार के
एक आखिरी वार से पहले
एक भीड़ एक झुण्ड
उस लकीर के दूसरी पार
खड़ी है लेकर हथियार
चेहरे उनके निर्भाव
अराजकता की सुगबुगाहट
एक आखिरी वार से पहले
एक लकीर से उस पार
पड़ा है निर्जीव निहत्था
चेहरे पर उसके भाव
चीत्कार के
एक आखिरी वार से पहले
एक भीड़ एक झुण्ड
उस लकीर के दूसरी पार
खड़ी है लेकर हथियार
चेहरे उनके निर्भाव
अराजकता की सुगबुगाहट
एक आखिरी वार से पहले
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " परमार्थ से बड़ा सुख नहीं - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण, उम्दा...
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद
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