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सोमवार, 24 जून 2019

भीड़

उद्देश्यहीन दिशाहीन भटकती भीड़ 
उजालों में अँधेरे भरती भीड़ 
आँखों से ओझल खालीपन में 
खामोश चीखें भरती भीड़ 

भीड़ में खोता इंसान 
इंसानियत को भूलती ये भीड़ 
सोती हुयी आत्मा का चीत्कार 
सुनकर भी अनसुना करती भीड़ 

भेड़चाल की भीड़ 
अहंकार की भीड़ 
सब कुछ खो देने को आतुर 
खुद को चिंगारी देती भीड़ 
 
 

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

एक आखिरी वार से पहले

एक अकेला
एक लकीर से उस पार
पड़ा है निर्जीव निहत्था
चेहरे पर उसके भाव
चीत्कार के
एक आखिरी वार से पहले

एक भीड़ एक झुण्ड
उस  लकीर के दूसरी पार
खड़ी है लेकर हथियार 
चेहरे उनके निर्भाव
अराजकता की सुगबुगाहट
एक आखिरी वार से पहले


रविवार, 13 सितंबर 2015

सच कहूँ ?

सोचता हूँ,
थमता हूँ,
सोचता हूँ,
थमता हूँ,
सोच पर पहरे लगे हैं,
लिखता हूँ,
तो कलम रूकती है,
ठिठकती है,
सच लिखूं ?
सच पढोगे ?
सच कहूँ ?
सच सुनोगे ?
सच पूछूं ?
सच बोलोगे ?
सच तो ये है कि
हम सच सुनना भूल गए,
सच सफ़ेद है, या झूठ काला है
जिसने गोली मारी, वो तालिबान,
जिसने गोली खायी, वो मलाला,
पर गोली मारने वाली सरकारों,
और सरकारी मुलाजिमों को फेहरिस्त में कौन लेगा ?
गोली खाने वाले मासूमों की गिनती
शुरू कब  होगी ?
गोली मारने वाले कब पैदा हुए,
उनको किसने पाला पोसा,
इसका हिसाब होगा ?
मुआवजे से जिंदगी का हिसाब,
किसने  और कैसे किया ?
और मुआवजा बांटने वाले कौन थे ?
सच के सिपहसालार थे,
या किसी के कंधे पर रख कर,
बंदूके गोलियां चलाने वाले थे ?
सच बोलने वाले कौन थे ?
उन्हें देखा कभी ?
उन्हें कन्धों पर उठाया था, जब वो ज़िंदा थे ?
या ये दिन उनके मरने  के बाद ही हमने
उनके जनाज़े पर देखा था ?
सच सफ़ेद, झूठ काला है
झूठ कहूँ, तो झूठ तुम सुनोगे,
झूठ लिखूं, तो झूठ तुम पढ़ोगे,
झूठ ही बोलूं, तुम झूठ ही समझोगे ! 

रविवार, 17 मई 2015

रंग

अपनी नजर के रंग भरता हूँ दुनिया में,
मैंने ख़याल अलग-अलग रंगों की
शीशियों में भर रखे हैं,
मैं आसमान को नीला कहता हूँ
और पत्तों को हरा समझता हूँ
धरती को भूरा और सूरज को
उसके मिजाज के हिसाब से
कभी सुनहरा कभी लाल मानता हूँ
असमानता के कई रंग
मेरी नजर पर पर्दा बन चस्पां हैं
जिस दिन मेरी आँखों से
मेरे नजरिये के, ये रंगीन पर्दे हटेंगे
उस दिन शायद साफ़-साफ़ देख पाउँगा
ये दुनिया आखिर किस रंग की बनी है ! 

गुरुवार, 7 मई 2015

मैं गुजरता रहा

मैं गुजरता रहा
जिंदगी आगे बढ़ गयी
उसने रोकना चाहा होगा मुझे 
रुक कर एक लम्हा
उसकी आँखों में
झाँक सकने के वास्ते
मैं शायद समझ ना सका
सिर्फ हाथ बढ़ा सका मैं
एक दफा हवा में
इस तरह अलविदा कह कर
मैं गुजरता रहा । 

जिंदगी हिसाब मांगती रही
हर एक मोड़ पर
मैं खाली पड़ी जेबों में
भर कर सपने उन्हें
बही खाते की किताबों को
दिखाता रहा
उसने पूछे थे मुझसे
मेरे सपनों के रंग
उन्हें बाँट सकने के वास्ते
पर आसमान की स्याही
रंग बदलती रही 
जिंदगी कुछ समझ न सकी
और मैं गुजरता रहा ।